महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-
मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।