Tuesday, November 23, 2010

किसान अपने खेत (स्त्री) वा वाटिका के बिना अन्‍यत्र बीज नहीं बोते : सत्‍यार्थ प्रकाश


स्‍त्री और पुरूष को ध्‍यान रखना चाहिऐ कि वीर्य और रज को अमूल्‍य समझें, जो कोई इस अमूल्‍य पदार्थ को परसत्री, वेश्‍या वा दुष्‍ट पुरूषों के संग में खोते हैं, वे महामूर्ख होते हैं, क्‍योंकि किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के बिना अन्‍यत्र बीज नहीं बोते, जो कि साधारण बीज का और मूर्ख का यह वत्तमान है ता जो सर्वोत्तम मनुष्‍यश्‍रीर रूप वृक्ष के बीज को कुक्षेत्र में खोता है, वह महामूर्ख कहाता है, क्‍योंकि उसका फल उसको नहीं मिलता और आत्‍मा वै जायते पुत्रः यह ब्राहम्‍ण ग्रन्‍थों का वचन है

(सत्‍यार्थ प्रकाशः चोथे सम्‍मुलास का वाक्‍य 142)




All these authorities and arguments go to prove that it is the duty of each man to preserve and perpetuate his family line and thereby improve the race by emans of Swayamvar Vivah - marriage by choice - and Niyoga.
"Just as an Aurasa, a son born of marriage, is entitled to inherit the property of his father, so is a Kshestrajna - a son born of Niyoga." MANU.
Men and women should always bear in mind that the (male or female) reproductive element is invaluable. Whosoever wastes this invaluable fluid in illicit intercourse with other people's wives, prostitutes, or lewd men, is the greatest fool, because even a farmer or a gardener, ignorant though he be, does not sow the seed in a field or a garden that is not his own. When it is true in the case of an ordinary seed and of an ignorant peasant, why
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should not that wastes the human see - the best of all seeds - in an undesirable soil, be regarded as the greatest fool, since he does not reap the fruit thereof. It is written in the Braahman Granth, "A son is part of his father's self." The Saama Veda also declares:- "O son! Thou art sprung out of my spermatic fluid which is drawn from all the bodily organs and from the heart. Thou art, therefore, my own self. Mayest thou never die before me. Mayest thou live for a hundred years." SAAMA VEDA. It is a sin of the deepest dye to sow the seed, out of which great souls and distinguished men have sprung, in a bad soil (such as a prostitute) or to let a good soil be impregnated with a bad seed.

3 comments:

Anonymous said...

Ghandhi ji wrote:

Hindu Revivalism and Education in North-Central India

I have profound respect for Dayanand Saraswati. I think that he has rendered great service to Hinduism. His bravery was 'unquestioned. But he made his Hinduism narrow. I have read Satyarth Prakash, the Arya Samaj Bible. Friends sent me three copies of it whilst I was residing in the Yarvada Jail. I have not read a more disappointing book from a reformer so great. He has claimed to stand for truth and nothing else. But he has unconsciously misrepresented Jainism, Islam, Christianity and Hinduism itself. One having even a cursory acquaintance with these faiths could easily discover the errors into which the great reformer was betrayed. He has tried to make narrow one of the most tolerant and liberal of the faiths on the face of the earth. And an iconoclast though he was, he has succeeded in enthroning idolatry in the subtlest form. For he has idolised the letter of the Vedas and tried to prove the existence in the Vedas of everything known to science. The Arya Samaj flourishes, in my humble opinion, not because of the inherent merit of the teachings of Satyarth Prakash, but because of the grand and lofty character of the founder.

http://dsal.uchicago.edu/books/socialscientist/text.html?objectid=HN681.S597_209_006.gif

Anonymous said...

गांधी जी अपने अख़बार ‘यंग इंडिया‘ में लिखते हैं-
‘‘मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। मैं सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है। उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफ़ार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन ग़लतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफ़ार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है। आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।
(अख़बार प्रताप 4 जून 1924, अख़बार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920)

asif sangli said...

वह भाई स्वामी जी "सत्यार्थ प्रकाश' १४वेन सम्मुल्लास में quran पर ३८ वी आपत्ति में १४०० सो साल पहले जो कहा गया उस पर ऐतराज़ करते हें और ४थे सम्मुलास में स्वयं ही औरत को खेत साबित कर रहे हैं ] धन्य हो

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